अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।
तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ झिझकैं कपटी जे निसाँक नहीं॥
घनआनंद प्यारे सुजान सुनौ यहाँ एक ते दूसरो आँक नहीं।
तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं॥
इस प्रकार स्नेह का मार्ग सदा से ही सरलता का रहा है निष्कपटता और सहजता का रहा है। कवि अति सरलता, सहजता, को स्नेह का मार्ग कहता है यहाँ किसी भी प्रकार की चतुराई नहीं चलती। यहाँ तो निर्मलता और त्याग दिखता है। यही प्रेम है।
दूसरी पंक्ति में घनानंद जी कहते हैं -प्यारी सुजान! सुनो! हमारे दिल में तो तुम्हारे सिवा किसी दूसरे का स्थान ही नहीं है । केवल तुम ही तन-मन में बसी हुई हो। लेकिन मैं तो तुम्हारी चतुराई पर आश्चर्यचकित हूँ। तुमने कैसा पाठ पढ़ा है कि लेने को तो मन भर लेती हो और देने के वक्त छटाँक का भी त्याग नहीं करती हो। इन पंक्तियों में द्विअर्थ छिपा हुआ है मन का ऐन्द्रिय मन से भी संबंध है और मन का वजन वाले मन से भी संबंध है। इन पंक्तियों में सुजान की चतुराई और घनानंद की सरलता, सहजता का वर्णन मिलता है। सुजान के रूप-लावण्य पर कवि रीझ कर अपना सर्वस्व लुटा देता है किंतु सुजान की थाह नहीं मिलती अर्थात उनके मन की गहराई नहीं ज्ञात हो पाती है।
यहाँ मन से द्वि-अर्थ स्पष्ट झलकता है। एक मन - ऐन्द्रिय -संबंधी है , दूसरा वजन - संबंधी । दोनों रूपों में सुजान चतुर है, समझदार है, जबकि घनानंद सीधे, सरल, निष्कपट हैं। उन्हें सुजान की चतुराई और व्यवहार पर अचरज होता है। यहाँ लौकिक प्रेम के साथ अलौकिक प्रेम का भी वर्णन किया गया है।