भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुनो कतारें डरी हुई हैं / गीता पंडित

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:09, 20 जुलाई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गीता पंडित |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatNav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

समय बाज है
झपट रहा है
जन के हाथों से रोटी
संसद शोर मचाती लेकिन
खेल रही
अपनी गोटी

सुनो कतारें डरी हुई हैं
देख भूख को
खड़े हुए
नोट गुलाबी सहमें से हैं
अभी बेंक में पड़े हुए

नब्बे पार
उमरिया काँपे
सपनों की हो गयी खोटी

दुल्हन की चूनर
रूठी को
देख पिता का दिल रूठे
नोट पुराने तोड़ रहे दम
घरबर का
सपना टूटे

ड्योढी रोती
जार-जार है
महंदी की अखियाँ छोटी।
संसद शोर
मचाती लेकिन
खेल रही अपनी गोटी।