भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बुझा दिए हैं ख़ुद अपने हाथों / साहिर लुधियानवी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:00, 20 जुलाई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=साहिर लुधियानवी |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बुझा दिए हैं ख़ुद अपने हाथों
मोहब्बतों के दीये जला के
मेरी वफ़ा ने उजाड़ दी हैं
उम्मीद की बस्तियाँ बसा के

तुझे भुला देंगे अपने दिल से
ये फ़ैसला तो किया है लेकिन
न दिल को मालूम है न हम को
जियेंगे कैसे तुझे भुला के
बुझा दिए हैं ख़ुद अपने...

कभी मिलेंगे जो रास्ते में
तो मुँह फिरा कर पलट पड़ेंगे
कहीं सुनेंगे जो नाम तेरा
तो चुप रहेंगे नज़र झुका के

न सोचने पर भी सोचती हूँ
कि ज़िंदगानी में क्या रहेगा
तेरी तमन्ना को दफ़्न कर के
तेरे ख़यालों से दूर जा के

बुझा दिए हैं ख़ुद अपने...