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कनुप्रिया - शब्द : अर्थहीन / धर्मवीर भारती

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पर इस सार्थकता को तुम मुझे
कैसे समझाओगे कनु?

शब्द, शब्द, शब्द…….
मेरे लिए सब अर्थहीन हैं
यदि वे मेरे पास बैठकर
मेरे रूखे कुन्तलों में उँगलियाँ उलझाए हुए
तुम्हारे काँपते अधरों से नहीं निकलते
शब्द, शब्द, शब्द…….
कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व……..
मैंने भी गली-गली सुने हैं ये शब्द
अर्जुन ने चाहे इनमें कुछ भी पाया हो
मैं इन्हें सुनकर कुछ भी नहीं पाती प्रिय,
सिर्फ राह में ठिठक कर
तुम्हारे उन अधरों की कल्पना करती हूँ
जिनसे तुमने ये शब्द पहली बार कहे होंगे

- तुम्हारा साँवरा लहराता हुआ जिस्म
तुम्हारी किंचित मुड़ी हुई शंख-ग्रीवा
तुम्हारी उठी हुई चंदन-बाँहें
तुम्हारी अपने में डूबी हुई
अधखुली दृष्टि
धीरे-धीरे हिलते हुए होठ!

मैं कल्पना करती हूँ कि
अर्जुन की जगह मैं हूँ
और मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है
और मैं नहीं जानती कि युद्ध कौन-सा है
और मैं किसके पक्ष में हूँ
और समस्या क्या है
और लड़ाई किस बात की है
लेकिन मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है
क्योंकि तुम्हारे द्वारा समझाया जाना
मुझे बहुत अच्छा लगता है
और सेनाएँ स्तब्ध खड़ी हैं
और इतिहास स्थगित हो गया है
और तुम मुझे समझा रहे हो……

कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व,
शब्द, शब्द, शब्द…….
मेरे लिए नितान्त अर्थहीन हैं-
मैं इन सबके परे अपलक तुम्हें देख रही हूँ
हर शब्द को अँजुरी बनाकर
बूँद-बूँद तुम्हें पी रही हूँ
और तुम्हारा तेज
मेरे जिस्म के एक-एक मूर्छित संवेदन को
धधका रहा है

और तुम्हारे जादू भरे होठों से
रजनीगन्धा के फूलों की तरह टप्-टप् शब्द झर रहे हैं
एक के बाद एक के बाद एक…
कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व…
मुझ तक आते-आते सब बदल गए हैं
मुझे सुन पड़ता है केवल
राधन्, राधन्, राधन्,

शब्द, शब्द, शब्द,
तुम्हारे शब्द अगणित हैं कनु -संख्यातीत
पर उनका अर्थ मात्र एक है -
मैं,
मैं,
केवल मैं!

फिर उन शब्दों से
मुझी को
इतिहास कैसे समझाओगे कनु?