मुतफ़र्रिक़ अशआर / सुरेश चन्द्र शौक़
जी करता है जंगल के इक गोशे को आबाद करें
धूनी रमाएँ,चिलम भरेम और भोलेनाथ को याद करें
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इक तिरी याद का आलम कि बदलता ही नहीं
वर्ना वक़्त आने पे हर चीज़ बदल जाती है
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रुक—सा गया है सिल्सिला—ए—नज़्मे—कायनात
थम— सी गई है गर्दिशे—दौराँ तिरे बग़ैर
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मत सोच कि आने में होगी तिरी रुस्वाई
यह देख तुझे दिल ने किस दिल से पुकारा है
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सोने लगता हूँ तो शानों को हिला देता है
नीम शब को ये मुझे कौन सदा देता है
सिलसिला —ए—नज़्मे—कायनात=दुनिया के कामकाज का सिलसिला;गर्दिशे—दौराँ =काल चक्र;शानों= काँधों;नीमशब=आधी रात
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आये थे तेरी बज़्म में किस इश्तियाक़ से
किस बेदिली से हमको मगर लौटना पड़ा
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वो बेख़ुदि के लिए हो कि आगही के लिए
शराबे—ग़म तो ज़रूरी है ज़िन्दगी के लिए
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तुम्हीं ने तर्के—तअल्लुक़ की ठान ली दिल में
तुम्हीं ने हाथ बढ़ाया था दोस्ती के लिए
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बहरे—हस्ती से तलातुम से जो टकराते रहे
दर—हक़ीक़त राहते—साहिल वही पाते रहे
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वझे—बरबादिए—दिल और बताई हमने
दास्ताँ तेरी किसी को न सुनाई हमने
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किससे ऐ ‘शौक़’ करें,अपनी तबाही का गिला
आग ख़ुद अपने नशेमन में लगाई हमने
इश्तियाक़=शौक़;आगही जानकारी;नशे—मन घोंसला;तर्के—तअल्लुक़-=संबंधों का परित्याग;बह्रे—हस्ती=भवसागर;तलातुम =बाढ़
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यह ज़ीस्त महब्बत में किस मोड़ पे ले आई
हम खुद ही तमाशा हैं और खुद ही तमाशाई
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दुश्मन वही निकले है जो अपना—सा लगे है
‘शौक़’ अब तो खरा सिक्का भी खोटा—सा लगे है
ऐ अजनबी! कुछ जान न पहचान है तुझ से
क्या जानिये क्यों फिर भी तू अपना—सा लगे है
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आती हैं याद तेरी तल्लवुन मिज़ाजियाँ
करता है बात जब भी कोई ऐतबार की
हमने भी शौक़ उड़ाई थीं दामन की धज्जियाँ
हम पर भी मेह्र्बाँ थी कभी रुत बहार की
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सबब की पूछो तो ऐसा कोई सबब भी नहीं
बस इतना है कि ये दिल बेक़रार रहता है
ज़ीस्त=ज़िन्दगी; तल्लवुन—मिज़ाजियाँ=बात से फिर जाना
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हर तरफ़ हैं ख़ैमाज़न पत्थरों के सौदागर
दिल का आइना ले कर जाओगे किधर यारो
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लग़ज़िशें साथ कहाँ तक देंगी
हम भी इक रोज़ सँभल जायेंगे
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दिन गुज़रता है मिरा बुझ—बुझ कर
शाम को ख़ूब जगमगाता हूँ
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परचों में आजकल की सियासत पे थे सवाल
हम हो सके न पास किओसी इम्तिहान में
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ऐ मसीहा नफ़स ! तिरे सदक़े
हो सके तो मुझे भी अच्छा कर
ख़ैमाज़न= डेरा डाले हुए; लग़ज़िशें=लड़खड़ाहटें, डगमगाहटें, मसीहा नफ़स= जो हर बीमारी का इलाज कर सके,माशूक़.
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बेकैफ़—सी सौ सदियाँ उन लम्हों से कमतर हैं
वो लम्हे कि जो हमने इक साथ गुज़ारे हैं
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वो तुमतुराक़, वो सजधज, वो शान है कि जो थी
हमारे दिल की वही आनबान है कि जो थी
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अपनी तकमील के लिए ऐ ‘शौक़’
रेज़ा—रेज़ा बिखरना पड़ता है
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क्या शौख़ तमन्ना हो मुझे ख़ुल्दे —बरीं की
शिमला ही मिरा मेरे लिए ख़ुल्दे बरीं है.
बेकैफ़=बेमज़ा;तुमतुराक़=धूमधाम;तकमील=पूर्ति;ख़ुल्दे—बरीं= स्वर्ग.