आदत / उपासना झा
जब मैं पढ़ने लगती हूँ दुनिया भर में सिमटते पहाड़-पठार,
और पृथ्वी के तल से कमता पानी
विलुप्त होते जंगल
नष्ट होते वन
साल दर साल कम होती बारिश
सूरज से आता असह्य ताप
तभी अचानक
कहीं दूर से आये
रातरानी की सुगन्धि की तरह याद आते हो तुम
और…
कितने जमे हुए पहाड़ पिघलने लगते हैं
पृथ्वी के तल से पानी जो कम हुआ
वो उतर आता है पक्षाभ मेघ बनकर नयनों में
विलुप्त हुए सब जंगल तुम्हारी पलकों में छिप जाते हैं
मैं सोचती हूँ
नष्ट वनों ने नहीं सुनी थी
तुम्हारी हरियाली सी आवाज़
तुम्हारे रूठने भर से मेघ भूल उठते हैं अपनी पगडंडी
सूरज उगलता है आग
देखा! कहती रही हूँ न
जरा नाराज़ कम हुआ करो।
जब मैं लिखने लगती हूँ मन की साध
तो उग आती है
तुमसे मिलने की इच्छा
जब लिखती हूँ मीत
तो नाम तुम्हारा होता है
जब लिखती हूँ तुम्हारी आँखो का रंग
तो मेरे होंठो की वलय पर
एक अलभ्य लालसा उग आती है
जब लिखती हूँ गंध
देह से आती है लज्जा की धूम
मीत मेरे, एक दिन तुम नहीं होगे
मैं भी नहीं होऊंगी
प्रेम बन जायेगा स्मृति
स्मृति बन जाएगी चिता की अग्नि
अग्नि की जिह्वा पर देह छोड़कर
हम-तुम मिलेंगे किसी और लोक में
लेकिन इन कविताओं में पढ़ा जा सकेगा तुम्हें
पृथ्वी घूम जाती है एक दिन में
अपनी धुरी पर
शुक्ल पक्ष से कृष्ण पक्ष में अंतर है आधे महीने का
और चंद्रमा भी
कर लेता है सत्ताईस दिन में एक परिक्रमा पूरी,
हर ढाई महीने में
बदल जाती है मौसम की चाल
हर बारह महीने पर
बदल जायेगा पंचांग
छह साल पर एक बार होगा अर्द्धकुंभ
मीत मेरे, ग्यारह दिन लगते हैं स्पर्श भूलने में
इक्कीस दिन में बदल सकती है
याद की सीढ़ी
छियासठ दिनों में बदल जाती है आदत
उतने दिनों का ही है मेरा जीवन-चक्र।