भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आशीष के दो चुम्बन / सुरेन्द्र डी सोनी

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:30, 17 अगस्त 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= सुरेन्द्र डी सोनी |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नन्हें-से चाँद की मुट्ठी में
भरकर
आशीष के दो चुम्बन
पुरुषार्थ की देवी ने
भेजा उसे मेरे पास...
यह कहकर
कि ज़ल्दी जा
चुक रही है पूँजी
मेरे एक प्रिय की
और यह भी
कि ज़ल्दी आना
बारिश के दिन हैं...

चाँद जब चला
तो नाच रही थीं
परियों की छोटी-छोटी बालाएँ
आसमान के सतरंगे चौक में -
चाँद ठिठका
पर रुका नहीं...
हवा में
कुछ बदमिज़ाज बादल जो तैर रहे थे...

मेरे घर की छत पर
बिखर गई झीनी रोशनी..
मुट्ठी भींचे उतरा
एक नंग-धड़ंग शहज़ादा -
मुझे ज़ल्दी जाना है
बालाओं के नाचने के दिन हैं...

उसने खोली मुट्ठी

और मुस्कुराता हुआ बोला -
लो चूम लो हथेली
यही कहा है माँ ने...

होंठों ने पढ़े
आशीष के दो चुम्बन...
साँसों की धूनी तक
उतरा सम्बल ही सम्बल
कि एक बिजली कड़की
एक बादल फटा...
सब-कुछ लुट गया
ऐसा लगा...

जाते हुए चाँद की आवाज़ सुनाई दी -
मत घबराना चुनौतियों से...
मैं कल फिर आऊँगा !