भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
समय गुज़रना है बहुत / विजयशंकर चतुर्वेदी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:51, 19 अगस्त 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजयशंकर चतुर्वेदी |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
अभी बहुत गुज़रना है समय
दसों दिशाओं को रहना है यथावत
खनिज और तेल भरी पृथ्वी
घूमती रहनी है बहुत दिनों तक
वनस्पतियों में बची रहनी हैं औषधियाँ
चिरई-चुनगुन लौटते रहने हैं घोसलों में हर शाम
परियाँ आती रहनी हैं बेख़ौफ़ हमारे सपनों में ।
बहुत हुआ तो क़िस्से-कहानियों में घुसे रहेंगे सम्राट
पर उनका रक्तपात रहना है सनद
और वक़्त पर हमारे काम आना है
बहुत गुज़रना है समय अभी ।