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हर गवाही से मुकर जाता है पेट / प्रफुल्ल कुमार परवेज़
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हर गवाही से मुकर जाता है पेट
उनकी जूठन तक उतर जाता है पेट
इस तरह कुछ साज़िशें करते हैं वो
सर से पाओं तक बिखर जाता है पेट
ज़हनो-दिल को ठौर मिलती ही नहीं
सारे बिस्तर पर पसर जाता है पेट
हर सुबह हर शाम बनिये की तरह
मेरी चौखट पे ठहर जाता है पेट
मेरे हाथों से महब्बत है उन्हें
उनकी आँखों में अखर जाता पेट
चीख़ता रहता है दिन भर दर्द से
रात आती है तो मर जाता है पेट
हार कर ख़ुद भूख से अक्सर मुझे
दुश्मनों की ओर कर जाता है पेट
बेअदब हूँ , बेहया, बेशर्म हूँ
तोहमतें हर बार धर जाता है पेट