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दूध-दूध! / रामधारी सिंह "दिनकर"

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पर, शिशु का क्या हाल, सीख पाया न अभी जो आंसू पीना?
चूस-चूस सुखा स्तन माँ का सो जाता रो-विलप नगीना।

विवश देखती माँ, अंचल से नन्ही जान तड़प उड़ जाती,
अपना रक्त पिला देती यदि फटती आज वज्र की छाती।

कब्र-कब्र में अबुध बालकों की भूखी हड्डी रोती है,
'दूध-दूध!' की कदम कदम पर सारी रात सदा होती है।

'दूध-दूध!' ओ वत्स! मंदिरों में बहरे पाषाण यहाँ हैं,
'दूध-दूध!' तारे, बोलो, इन बच्चों के भगवान् कहाँ हैं?

'दूध-दूध!' दुनिया सोती है, लाऊं दूध कहाँ, किस घर से?
'दूध-दूध!' हे देव गगन के! कुछ बूँदें टपका अम्बर से!

'दूध-दूध!' गंगा तू ही अपने पानी को दूध बना दे,
'दूध-दूध!' उफ़! है कोई, भूखे मुर्दों को जरा मना दे?

'दूध-दूध!' फिर 'दूध!' अरे क्या याद दुख की खो न सकोगे?
'दूध-दूध!' मरकर भी क्या टीम बिना दूध के सो न सकोगे?

वे भी यहीं, दूध से जो अपने श्वानों को नहलाते हैं।
वे बच्चे भी यही, कब्र में 'दूध-दूध!' जो चिल्लाते हैं।

बेक़सूर, नन्हे देवों का शाप विश्व पर पड़ा हिमालय!
हिला चाहता मूल सृष्टि का, देख रहा क्या खड़ा हिमालय?

'दूध-दूध!' फिर सदा कब्र की, आज दूध लाना ही होगा,
जहाँ दूध के घड़े मिलें, उस मंजिल पर जाना ही होगा!

जय मानव की धरा साक्षिणी! जाय विशाल अम्बर की जय हो!
जय गिरिराज! विन्ध्यगिरी, जय-जय! हिंदमहासागर की जय हो!

हटो व्योम के मेघ! पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं,
'दूध, दूध! ...' ओ वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं!