भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गेहूँ का दाना / कुमार कृष्ण
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:09, 28 सितम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार कृष्ण |अनुवादक= |संग्रह=उम्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
मिट्टी में दबी मनुष्य की भूख
जितनी बार होती है गर्म आग पर
उतनी ही बार-
बदलती है अपना रंग अपना रूप
पिस-पिस कर, जल-जल कर
भूख में कराहती आवाज़ है गेहूँ का दाना
वह न हंसना जानता है न रोना
पक्षी की चोंच में उड़ता जीवन है गेहूँ का दाना
वह है भूख में लड़ती गर्म हथेलियाँ
किसान के पांव
धरती में गड़ा अमृत-बीज
जीवन के, कविता के पंख
मनुष्य की नींद है गेहूँ का दाना
वह है सपनों की उम्मीद
मिट्टी की मिठास
बंजर होते खेतों के शोकगीत
मनुष्य का सबसे पहला प्यार
वह है भूख का भगवान
उगने दो उसे पुरानी ठसक के साथ
मत मारो ज़हर देकर
मनाने दो-
पृथ्वी का, मनुष्यता का उत्सव।