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घोर अन्धकार ! / सुरेश सलिल

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घोर अन्धकार !

कालिख में लिपटे हुए
      नगर,ग्राम, घर-द्वार
ऐसे में कैसे रहा जाए भला निर्विकार

बचपन में सुने हुए भूतों, यमदूतों से
क़िस्से-कहानियों तक रही दरकार
जानता नहीं था कि एक दिन सजाएँगे
वे ही अपना हुज़ूर दरबार

जन-गण विकल होंगे
पल-प्रतिपल छल होंगे
दल होंगे
       किन्तु वे निरन्तर विफल होंगे

लोभ में लिथड़े हुए
दाँव में पिछड़े हुए
जन प्रतिनिधि
 कैसे उठाएं विप्लव -स्वर-सम्भार !