भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खाँसी / कुमार वीरेन्द्र

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:48, 1 नवम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार वीरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पत्नी ने गमलों में तुलसी के
कुछ पौधे लगाए हैं कि पत्ते

खाँसी में काम
आते हैं; पत्नी ने तुलसी के पौधे क्या लगाए
हैं, बेटे को रोज़ ही खाँसी हुई रहती है; पत्नी रोज़ परेशान रहती है, बेटे की झूठमूठ की खाँसी से
कि किसी न किसी पौधे के पत्ते तनि बढ़ते ही तोड़ लिए जाते हैं; लाख समझाने के बावजूद, बेटा
अपनी खाँसी की अपनी ही धुन में; एक दिन पत्नी ने डाँटा, ‘अगर अब पत्ते बिना
पूछे तोड़े, तुम्हारे कान ऐंठूँगी, समझे’, फिर तो ऐसा — बेटे को खाँसी
तब होती है, जब मैं घर में रहता हूँ; जब नहीं रहता, और
तुलसी के पत्ते खाने की इच्छा हो, पत्नी की
छाती से लग कहता है, ‘मम्मी
तुम्हारी साँस तो
तेज़

चल रही है, लगता है — खाँसी
होनेवाली है; बोलो, लाऊँ क्या

तुसली के पत्ते !