भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घर-घर आँगन-आँगन जागा / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:47, 5 नवम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामगोपाल 'रुद्र' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
घर-घर आँगन-आँगन जागा, तेरा घर अँधियार,
आली! तू भी संझा बार।
शशि शरमाए कुमुद-नयन में;
निशि शत-शत-दृग विस्मित मन में
यह कैसी लौ मृन्मय तन में!
इन दीपों के आगे जागे क्या नभ का शृंगार!
पर्व नहीं, यह गर्व धरा का;
तिमिर-शिखर पर ज्योति-पताका;
अति पर नति की जय का साका;
इन नेही नयनों के जोड़े क्यों न जुड़े संसार!
एक दिया तेरे भी कर में,
साँझ दिखा दे, सखि, घर-घर में;
निज लघुतमता में मत भरमे;
यह तेरा लघु नीराजन ही होगा रवि साकार!