भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिशि-दिशि निशि घिर आई / रामगोपाल 'रुद्र'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:48, 5 नवम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामगोपाल 'रुद्र' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिशि-दिशि निशि घिर आई; जग के दीप, जलो।

जिस रजनीमुख से छुट झूठी
ज्योति हुई लुट-लुटकर झूठी,
वह, महि की अहिता से रूठी,
विधु-विधुरा फिर आई; मग के दीप, जलो।

घन-रण-फण का जो भय-पावस
छाया है बन प्रेत-अमावस,
अभय शरद्‍ हो, भरित सुधारस
नेहदृगी झिर आई; पग के दीप, जलो।

तम के बल से हारा-हारा
माँग रहा नभ ज्योति–सहारा;
ताक रहा है तारा-तारा;
लौ रज के सिर आई; लगके दीप, जलो।