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दिशि-दिशि निशि घिर आई / रामगोपाल 'रुद्र'
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दिशि-दिशि निशि घिर आई; जग के दीप, जलो।
जिस रजनीमुख से छुट झूठी
ज्योति हुई लुट-लुटकर झूठी,
वह, महि की अहिता से रूठी,
विधु-विधुरा फिर आई; मग के दीप, जलो।
घन-रण-फण का जो भय-पावस
छाया है बन प्रेत-अमावस,
अभय शरद् हो, भरित सुधारस
नेहदृगी झिर आई; पग के दीप, जलो।
तम के बल से हारा-हारा
माँग रहा नभ ज्योति–सहारा;
ताक रहा है तारा-तारा;
लौ रज के सिर आई; लगके दीप, जलो।