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आज अमा घर आई / रामगोपाल 'रुद्र'
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आज अमा घर आई; मेरे दीप, जलो!
प्रीति निभाकर नीलविभा की
मरघट-मरघट जो भटका की,
वह सिन्धुज श्री, मूर्ति व्यथा की,
भस्म रमा कर आई; मेरे दीप, जलो।
अभ्युदयी, तम के रज-ध्वज धर
सत्पथभ्रष्ट हुए, भृगु-पद भर;
प्रायश्चित्त बनी, अवनी पर
विष्णु-क्षमा ढर आई; मेरे दीप, जलो।
दीर्घ तिमिर, महि पर अहि-कुन्तल;
उडुगण, गुम्फित मणि-मुक्ताहल;
दीपक-माल दिये भव के गल
स्वयं प्रभा वर आई; मेरे दीप, जलो।