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मैं इतना आकुल ही क्यों हूँ? / रामगोपाल 'रुद्र'

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तन जलता है, मन जलता है, जलता है नयनों में पानी,
रोम-रोम में चिनगारी है, चिता बनी जलती है बानी;
लिपट गई लपटें अधरों से, साँसों में है जलन-कहानी,
जीवन-वन में आग लगी है, निठुर नियति की यह मनमानी!

तिनके ही अंगारे जिसको, वह बन्दी बुलबुल ही क्यों हूँ?
प्यार यही तो किया कि जग ने पीड़ा के सामान दिये हैं!
मैंने फूल चढ़ाए, जग ने शूलों के वरदान दिये हैं!
देकर नभ को चाँद, स्वयं मैंने तारों के बाण लिये हैं;
भाव बहा बेभाव, अभावों के उर पर पाषाण लिये हैं;

अब घुलता रहता दृग-जल में, मैं ऐसा ढुलमुल ही क्यों हूँ?