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आज घन की रात / रामगोपाल 'रुद्र'

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भादों की अँधेरी रात!

दिल दबा-सा जा रहा है,
कण्ठ भरता आ रहा है,
और, तिरती आ रही है आँख में बरसात!

चकित चितवन, चित्र-सा मन,
लीन प्राण, विलीन कम्पन,
एक भी साथी न संगी और झंझावात!

एक जो भी था सितारा,
नयन का, मन का सहारा,
घिर गया वह भी, घिरे जो घोर घन-संघात!

लो, लगी पड़ने झमाझम,
छा गया भव पर विभव-तम,
रो पड़े क्यों प्राण मेरे, याद कर क्या बात?

कौन है जो दे दिलासा,
सब तमाशा ही तमाशा;
आज अपने शूल पर हँसते सुमन के पात!