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मुँह फेरे ओ चंदा मेरे! / रामगोपाल 'रुद्र'

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मुँह फेरे, ओ चन्‍दा मेरे! अब तो मेरी ओर मुड़ो!

अब कितना टक बाँधें तारे?
कुमुदनयन भी इनसे हारे!
अपना ही मृग मान इन्‍हें भी, दृग को दृग दो और जुड़ो!

सिन्‍धु यहाँ भी लहराता है,
मेघ यहाँ भी घहराता है,
अथक मिचौनी का मन हो तो इन तारों से मत बिछुड़ो!
आओ, तुमको अंजन कर दूँ,
चितवन देकर खंजन कर दूँ,
पाँख करो मेरी पलकों को, बाँधो, मेरेव्योम उड़ो!