भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जितने भी गीत सिखाने हों / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:13, 10 नवम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामगोपाल 'रुद्र' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
जितने भी गीत सिखाने हों, जल्दी ही ज़रा सिखा दो!
कुछ ठीक नहीं, कब चल दूँ मैं, अब ऐसा ही लगता है,
ये गीत सुनाने हैं जिसको, शायद अब तक जगता है!
जो भी सन्देश लिखाने हों, जल्दी ही ज़रा लिखा दो!
यह रूप-रंग का धाम तुम्हारा ऐसा चित्रालय है
सब देख सकूँ सब आँक सकूँ, उफ! इतना कहाँ समय है!
अब जो भी चित्र दिखाने हों, जल्दी ही ज़रा दिखा दो!