भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चाँद ढलता जा रहा है / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:19, 10 नवम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामगोपाल 'रुद्र' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
रश्मियों के मूर्त स्वर पर
मुग्ध हैं मृग-दृग-कुमुद-सर;
शशिप्रभा की मूर्च्छना से नभ पिघलता जा रहा है!
पालती बाती हिये में
साधना जलती दिये में;
वेदना की वेदिका पर मोम गलता जा रहा है!
स्वप्न घुल-घुल ढुल रहा है,
सत्य धुल-धुल खुल रहा है;
दीप बुझता जा रहा है, घर उजलता जा रहा है!