भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेले में बिछड़ा बालक हूँ / रामगोपाल 'रुद्र'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:23, 10 नवम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामगोपाल 'रुद्र' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेले में बिछड़ा बालक हूँ, बिसरा मेरा ज्ञान!
भूला-भूला मेरा ज्ञान!

कुछ ऐसा ही भूल गया है मुझको मेरा मन;
लाख पूछते लोग, एक ही उत्‍तर है रोदन!

यहाँ तमाशे में आया था, बना तमाशा हूँ!
भाप जहाँ भाषा, मैं उस करुणा की भाषा हूँ!
लोगों को हैरानी है! मैं आप यहाँ हैरान!

मुमकिन है, मेरी भी होती होगी खोज कहीं!
वरना कोई हाथ बिठा जाता क्यों रोज, यहीं?

मुझे यहाँ यों छोड़ गया है कौन, कौन जाने!
मेले में तो होता ही है! बुरा कौन माने!
मुझको भी सब समझ रहे हैं मेले का सामान!