भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपनी गति का सोच / रामगोपाल 'रुद्र'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:48, 13 नवम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामगोपाल 'रुद्र' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपनी गति का सोच मुझे क्यों हो?
मैं अपनी क्या सोचूँ, जब तुम हो!

निकली हूँ, पथ पर ही हूँ, फिर भी
छूट रहीं आवजें निकल गई!
बाना तो अपने कुल का ही है,
गति-विधि भी अविनीत नहीं न नई;
तब जो उठें उँगलियों उठा करें;
मैं क्यों व्यर्थ सँकोचूँ, जब तुम हो!

यों जो हूँ बेपर्द, यही शायद,
लगता है, पंचों को लगता है;
बँधी टेक की टक ठक रह जाती;
कंडे-सा अभिमान सुलगता है;
फोड़ा करे माथ दुनिया पर मैं
क्यों न सुहागों रोचूँ जब तुम हो!

पैदल पथ पर और अकेली भी,
मैं हूँ अभय कि तुम कब साथ नहीं;
कवच तुम्हारी सुध; फिर इस तन को
कैसे लगे कलुष का हाथ कहीं!
घूँघट-ओट सुधा-घट से मैं क्यों
लोचन-लवण बिमोचूँ, जब तुम हो!