भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

परिंदे किस तरह पिंजरों में रहते होंगे अब जाना / डी. एम. मिश्र

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:57, 16 नवम्बर 2020 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

परिंदे किस तरह पिंजरों में रहते होंगे अब जाना
सुबह से शाम तक केवल तड़पते होंगे अब जाना

न उनके पंख खुल सकते, न उड़ सकते हवाओं में
कई क़िश्तों में बेचारे वो मरते होंगे होंगे अब जाना

गुज़र जाती है सारी ज़िंदगी़ बस जी हुज़ूरी में
गुलामी किस तरह वो लोग करते होंगे अब जाना

अगर वो उफ़ करें तो काट दी जाये ज़ुबाँ उनकी
इसी डर से वे सब चुपचाप सहते होंगे अब जाना

सही है महफ़िलों में आ के दीवाने भी हँस देते
मगर तन्हाइयों में वो सिसकते होंगे अब जाना

ग़रीबों के जमाखातों में पैसे भी नहीं होते
गु़ज़ारा किस मुसीबत मे वो करते होंगे अब जाना