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परिंदे किस तरह पिंजरों में रहते होंगे अब जाना / डी. एम. मिश्र
Kavita Kosh से
परिंदे किस तरह पिंजरों में रहते होंगे अब जाना
सुबह से शाम तक केवल तड़पते होंगे अब जाना
न उनके पंख खुल सकते, न उड़ सकते हवाओं में
कई क़िश्तों में बेचारे वो मरते होंगे होंगे अब जाना
गुज़र जाती है सारी ज़िंदगी़ बस जी हुज़ूरी में
गुलामी किस तरह वो लोग करते होंगे अब जाना
अगर वो उफ़ करें तो काट दी जाये ज़ुबाँ उनकी
इसी डर से वे सब चुपचाप सहते होंगे अब जाना
सही है महफ़िलों में आ के दीवाने भी हँस देते
मगर तन्हाइयों में वो सिसकते होंगे अब जाना
ग़रीबों के जमाखातों में पैसे भी नहीं होते
गु़ज़ारा किस मुसीबत मे वो करते होंगे अब जाना