भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शाम ढलते वो याद आये हैं / साग़र पालमपुरी

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 22:47, 5 अक्टूबर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= मनोहर 'साग़र' पालमपुरी }} Category:ग़ज़ल <poem> शाम ढलते ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


शाम ढलते वो याद आये हैं
अश्क पलकों पे झिलमिलाये हैं

दिल की बस्ती उजाड़ने वाले
मेरी हालत पे मुस्कुराये हैं

कोई हमदम न हमनवा कोई
हर तरफ़ रंज-ओ-ग़म के साये हैं

बाग़-ए-दिल में बहार आई है
ज़ख़्म गुल बन के खिलखिलाये हैं

वक़्त-ए-मुश्किल न कोई काम आया
हमने सब दोस्त आज़माये हैं

क़िस्सा-ए-ग़म सुनायें तो किसको
आज तो अपने भी पराये हैं

इन बहारों पे ऐतबार कहाँ
हमने इतने फ़रेब खाये हैं

प्यार की रहगुज़र पे ऐ ‘साग़र’!
हम कई मील चल के आये हैं