भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़िन्दगी अपनी हुई है मैल कानों की / माहेश्वर तिवारी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:54, 6 दिसम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= माहेश्वर तिवारी |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
चीख़ बनते जा रहे
हम सब खदानों की
हो गए हैं शोकधुन
बजते पियानो की ।
कल तलक सुनते रहे जो
आज बहरे हैं
आँसुओं के बोल जिनके
पास ठहरे हैं
ज़िन्दगी अपनी हुई है
मैल कानों की ।
देखते जब शब्द के
बारीक छिलके खोल
देश लगता रह गया
बनकर महज भूगोल
एक साजिश है खुली
ऊँचे मकानों की ।