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मूक हैं गान ! / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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131
मन अधीर
द्रौपदी के चीर-सी
बढ़ गई है पीर
डूबी है सृष्टि
मिला न कोई छोर
तुम्हीं जीवन-डोर ।
132
मूक हैं गान
अश्रु में डूबा नभ
बिछुड़ गई धरा
प्राण विकल
जीने के लिए नित
मरे कई मरण।





[ तीसरा पहर]