भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मूक हैं गान ! / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:07, 25 दिसम्बर 2020 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

131
मन अधीर
द्रौपदी के चीर-सी
बढ़ गई है पीर
डूबी है सृष्टि
मिला न कोई छोर
तुम्हीं जीवन-डोर ।
132
मूक हैं गान
अश्रु में डूबा नभ
बिछुड़ गई धरा
प्राण विकल
जीने के लिए नित
मरे कई मरण।





[ तीसरा पहर]