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बरस रहा मौसम सम पर है / रामकुमार कृषक
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बरस रहा मौसम सम पर है ,
कैसे इसे जिएँ हम पर है !
कुछ यादें जो हरी - भरी थीं
अब भी मह-मह महक रही हैं
सपनों की चिड़ियाएँ बेशक
दूर देश जा चहक रही हैं,
सारा जग उनका हमदम है ।
माना दुख ही बरस रहे हैं
आँगन से लेकर बस्ती तक
फिर भी हम-तुम चले बराबर
अपनी क्यों दिन की पस्ती तक
आगत भी अपने दम पर है ।