भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

महानगर के जंगल में / अश्वघोष

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:00, 6 फ़रवरी 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अश्वघोष |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatNavgeet}}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

महानगर के जंगल में हम
घूम रहे होते
शायद हमने कर डाले
अनचाहे समझौते

संधिपत्र तो लिखे
प्यार की क़ीमत नहीं चुकी
अपने ही अधरों में बन्दी
अपनी हंसी-ख़ुशी
फूटे रिश्तों में
बैलों से जोते
महानगर के जंगल में हम
घूम रहे होते

अम्मा की रामायण-गीता
सहसा रूठ गई
हरिद्वार के गंगाजल की
शीशी फूट गई
पानी पर तिनके की नाईं
घूमे समझौते
शायद हमने कर डाले
अनचाहे समझौते