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शांति / अजित कुमार
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एक निराश पहाड़ी की गोद से
टूट
बिखरता-सा नन्हा झरना ।
ना,
वापिस लौटने की कोशिश में
आगे
सदा आगे
बढती ही चली जाती नदी ।
दी
क्यों ऐसी शांति ?
ऊँची, नंगी उस चोटी पर
बर्फ़ के क़फ़न का
मुकुट
पहने झाँकता था
सूर्य…
और
मैं
समझा
मृत्यु ।