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फूले जब वन पलाश / अमरनाथ श्रीवास्तव
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अनायास कोई धुन होंठों तक आई है
एक साथ कई गीत हवा उठा लाई है
कसक किसी कथा में खो गई सुई-सी है
खोजें तो मिले नहीं, लेटें तो चुभती है
साहस की सीढ़ी भी फिसल-फिसल जाती है
सांस के धरातल पर कितनी चिकनाई है
जी होता नयनों से किरणों के फूल चुनें
मिट्टी की मूरत भी हो तो कुछ कहें-सुनें
सन्नाटे में जब भी आहट-सी आई है
मुड़कर देखा तो अपनी ही परछाईं है
बाहर से जुड़ा, किन्तु भीतर खण्डित-उथला
फ़सलों के बीच चढ़ा मैं धोखे का पुतला
पतझर के दिन तो जैसे-तैसे बीत गए
फूले जब वन पलाश, आँखें भर आई हैं