भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
राख राख / रामकृपाल गुप्ता
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:20, 3 अप्रैल 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामकृपाल गुप्ता |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
पी के तमाम हो गई बोतल शराब की,
अब याद-ए जुनूं–साथ लिये जी रहा हूँ मैं।
ऐसे भी दौर थे कि पी के होश खो दिये,
खाली है ज़ाम देख रहा, जी रहा हूँ मैं।
गिनती की साँस लेके ही आया है हर बशर,
फूँकी थी ख़ूब, फूँक–फूँक जी रहा हूँ मैं।
गिरके हज़ार बार उठा, फिर सँभल गया,
अब के गिरा तो होश फना, जी रहा हूँ मैं।
तौबा ये ज़िन्दगी, अब इसे और क्या कहिये,
मल-मल के हाथ, राख–राख जी रहा हूँ मैं।