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वह काली स्त्री / लता अग्रवाल
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वह काली स्त्री
दुखी है
अपनी रंगत से नहीं
जमाने के उपहास से
सो नहीं पाती रातों को
करते हैं पीछा
समाज के उलाहने
नकार दी जाती है वर पक्ष से
उम्र की दहलीज़ पर खड़ी
जज्बातों का पंछी
फड़फड़ाता है रगों में उसके
देह की गंध रात के सन्नाटे में
महुआ-सी महकती है
खींच लाती है शिकारियों को
फिर रात के अंधेरे में
बोए जाते हैं बीज
आज फैले हैं उसके आसपास
बनकर उसका प्रतिरूप
श्वेत, पीले और काले फूल।