भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सोच रहा है गुमसुम बैठा रामभरोसे / राजेन्द्र वर्मा

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:45, 16 अप्रैल 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजेन्द्र वर्मा |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सोच रहा है गुमसुम बैठा रामभरोसे,
कब तक आख़िर देश चलेगा रामभरोसे!

रोटी, कपड़ा और मकान, अभी भी सपना,
खींच रहा बचपन से ठेला रामभरोसे।

श्रम-सीकर से पूँजी का घर भर देता है,
ख़ुद पा लेता चना-चबेना रामभरोसे।

गाँधी के तीनों बन्दर, बन्दर ही निकले,
बाँच रहा बस उनका लेखा रामभरोसे।

दे जाता है हर चुनाव छलनी-भर पानी,
उसको भी माथे धर लेता रामभरोसे।

चाहे जितनी कठिन परीक्षा ले लो उसकी,
लेकिन ख़ुद को दग़ा न देगा रामभरोसे।