रोके गिरना सरग टिटहरी / रामकिशोर दाहिया
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|रचनाकार= रामकिशोर दाहिया
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कहने को सब धूप कहे रे
सहने को सब रूप सहे रे
मन की बाढ़ न बाहर निकले
भीतर-भीतर कूप बहे रे
प्रातः सार मवेशी ढीले
पूरा कांँदो-कीच कढ़ीले
क्वाँर कसाई एक न मानें
घर के बाहर पीठ उचीले
परछी के पिछवाड़े कण्डे
पाथे ममता आंँख तरेरे.
चूल्हा-चौंका बर्तन भाँड़े
चारा-पानी आँत निकारे
अदहन-१ देते हुई दुपहरी
दाल चुरी न आटा माड़े
हलधर लौटा खेत जोतकर
बारी -जैसे बैल उरेरे-२.
खेत काटकर लाँक३ सहेजे
उरदा, तिली, धान के बोझे
पीली पड़ी जुन्हाई मुँह की
अंँखियों से संदेश भेजे
तुर्रेदार हवा सीने पर
ठण्डे क्यों अंगार बिखेरे?
टिप्पणी :
१.अदहन- बर्तन में चूल्हे पर टांँगा गया भोजन पकाने का पानी।
२.उरेरे- बैल का शारीरिक क्षति पर ध्यान न देते हुए बाड़ को तीब्रता से दूर फेंकना या पलटना। ३.लांँक-पौधे सहित काटी गई फसल, जिसमें अन्न के दाने होते हैं।
-रामकिशोर दाहिया