भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हिरनी फेंके ख़ून / उमाकांत मालवीय

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:04, 23 अप्रैल 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उमाकांत मालवीय |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हिरनी फेंके ख़ून
दसतपा आग न बरसा रे ।

दुबके हुए मेमने बैठे
हाँफ रहे खरगोश
हरियाली का पता नहीं
जा बैठी काले कोस

हन हन पड़ती किरन
कि जैसे बरछी फरसा रे ।

प्यास डोलती दर-दर
पानी ने पाया बनवास
अपनी प्यास पिए चल रे मन !
छाँड़ बिरानी आस

रस्ता बिसर गए क्या बादल ?
बीते अरसा रे  !

दुपहरिया भर लू ठनके
नाचै अगिया बैताल
एक बेहया.झोंका
नंगी टहनी गया उछाल

उघरे कूल पुकारें
नदिया और न तरसा रे ।