भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ओ सखि सुन - 3 / विमलेश शर्मा

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:50, 21 जून 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विमलेश शर्मा |अनुवादक= |संग्रह=ऋण...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बैंजनी फूल कचनार के
सादा थे!
प्रिय थे तुम्हें
इसीलिए चुन लिए थे!

कोमल इतने
जितना तुम्हारा ख़याल
कि पलक की झपक हो
और ओझल होने का भय तिर जाए!

उन्हें चुनना एक योग था
स्मृति में भाव का
जीवन में प्राण का
भाद्रपद में कजरारे मेघ का!

यों आषाढ़ में
बीते फागुन की यात्रा
एक याद भर है!
दरअसल
टूटे हुए की यह सहेजन
संस्कृति का भाग है!

सृष्टिप्रिया पीड़ा का राग है!

सखि! स्मृतियाँ पवित्र होती हैं
विषादजन्य हों तो भी
फूल-सी मृदु होती हैं
महुए की पछुआ में
खोयी लाज-सी होती हैं!
जानती हो
अतिशयता के तीर पर
दोनों ही सम नज़र आती हैं

जैसे कि एक हथेली पर फूल
और दूसरी पर
बस
फूल की आग!