भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
झोपड़पट्टी / पंछी जालौनवी
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:18, 24 जून 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पंछी जालौनवी |अनुवादक= |संग्रह=दो...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
बच्चों के साथ साथ
सामान बढ़ता जा रहा है
हम जिस कमरे में रहते हैं
वो घटता जा रहा है
कोई स्कीम हमारी गली तक
आती नहीं है बारिश में
घर तालाब बनता जा रहा है
इतना सट के रहते हैं
हम अपने पडोसी के
छन से मेरी हंडिया में
आवाज़ आती है
जब उसकी पत्नी
दाल में तड़का लगाती है
बहुत घनी है ये बस्ती
टीन टप्पड़ की हैं दीवारें
बरसाती पन्नी से छत ढकी है
फिर भी अंदर आ जाती हैं
धुप की बौछारें
कोई ख़याल भी आये
गर दौड़ता हुआ घर में
पूरा कमरा शोर मचता है
ऐ ज़हर आलूद हवाओं
आहिस्ता से क़दम रखना
तुम भी मेरी बस्ती में
वरना यहाँ अगर फैली ख़ामोशी
तो गूंगे हो सकते हैं वह भी
जिनकी बुलंद है आज
आवाज़ फ़िज़ाओं में॥