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सुनो उतथ्य! / दिनेश श्रीवास्तव

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सुनो उतथ्य,
स्मरण तो है न वह दिन?
जब तुम्हारी पत्नी भद्रा का हरण
वरुण ने कर लिया था?
और जब तुम्हारा क्रोध
ज्वालामुखी की तरह उफन पड़ा था!

तुमने तो वरुण का घर उजाड़ने के लिए
सागर को सुखा दिया था,
सरस्वती को मरुस्थल में
लुप्त हो जाने का आदेश दे दिया था,
और सारे के सारे ब्रह्मावर्त को
अपवित्र देश
होने का दे दिया था श्राप!

सुनो उतथ्य,
आज तुम होते तो क्या करते?
अरे
कितना तो रोये हैं लोग-
जेरोम कर्न और ऑस्कर ली हम्मरस्टेइन
रोते रहे, कोड़े खा-खाकर मिसिसिपी से फरियाद करते रहे,
पर "ओल्ड मैन रीवर" का प्रवाह न रुका?

भूपेन ने सोचा, गँगा तो हमारी माँ है,
पर वे पूछ पूछ कर हार गए कि
इतना सब हो रहा है फिर भी-
"गँगा, तू बहती है क्यों?"
पर गँगा ने कोई जवाब नहीं दिया,
बस चुपचाप बहती रही?

अमृता प्रीतम ने भी शायद
भविष्य के गर्भ में पल रहे
इसी दुर्दिन के लिये,
वारिस शाह को पुकारा था-
अरे "पंजाब की एक लड़की रोई तो
तूने पन्ने के पन्ने भर दिए
और आज लाखों लड़कियाँ बिलख रहीं हैं,
और तुम चुप हो!"

आज क्या फूल सी बच्चियों
और जाने कितनी स्त्रियों का
आर्तनाद तुम्हें नहीं सुनायी पड़ रहा?
अरे, क्या तुम्हें आततायी नर-पिशाचों के
अट्टहास भी नहीं सुनायी दे रहे?
कहाँ है तुम्हारा क्रोध?
कहाँ सो गया तुम्हारा ब्रह्मतेज?

सुनो उतथ्य,
क्या तुम्हारा क्रोध मात्र
अपनी भार्या के ही कष्ट पाने पर जागा था?
सुनो उतथ्य,
इतने आत्म-केंद्रित तुम कबसे हुए?
भला कब तक जीतते रहेंगे ये नर-पिशाच ?
भला कब तक जलता रहेगा यह देश
तुम्हारी असम्पृक्तता की आग में?
जागो उतथ्य, जागो?

रचना काल: २८ / ०८ / २०१८