भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारी बात / रेखा राजवंशी

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:58, 23 जुलाई 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रेखा राजवंशी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शाम चुपचप ढलती जाती है
तुम्हारी बात चलती जाती है

आँख को न था हादसों पे यकीं
न वो हँसती, न रोने पाती है

देख के चंद सितारों का रुख
कश्ती तूफ़ाँ में बढ़ती जाती है

लेके हाथों में वो सूखे गज़रे
ज़िंदगी ग़ज़ल गुनगुनाती है

तुमसे मिलने का, बिछड़ने का सबब
दुनिया पूछे तो मुस्कुराती है

वो जो आएँ, तो मेरा चाँद आए
ईद आती है, चली जाती है