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दूसरे बच्चे के बाद / अंकिता जैन

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दूसरे बच्चे के बाद
उग आती हैं दो आँखें
माँ की पीठ पर भी,
कि वह जिस भी करवट सोए
आधी चेतना
उसकी पीठ के रास्ते
लेती रहती है टोह
दूसरे बच्चे की।

उग आते हैं दो अमूर्त हाथ भी
जो पीठ के सहारे
जता लेते हैं,
अपना प्रेम, दे पाते हैं गरमाई
और अपने स्पर्श मात्र से रखें रहते हैं भरम बच्चे के मस्तिष्क में
माँ के सानिध्य में होने का।

उग आता है एक दिल भी
जो उतना ही समर्पित होकर धड़कता है दूसरे के लिए
ताकि बँटे ना धड़कनें भी
और बची रहे माँ उस सार्वभौमिक लड़ाई से
कि माँ मुझसे करती है अधिक प्यार।

माँ बन जाती है वह तराजू
जिसके दोनों पलड़ों पर रखा प्रेम
झूलता रहता है
झगड़ती नन्हीं हथेलियों के बीच
कि वे लगाते रहते हैं हिसाब ताउम्र
अपने हिस्से आए प्रेम का
और अपने हिस्से से ले लिए गए प्रेम का भी।

माँ लुटा देती है
अपने सामर्थ्य से भी अधिक ख़ुद को
फिर भी रहती है असमर्थ
यह जतलाने में
कि वह किससे अधिक प्रेम करती है।
और खोल देती है अपने भीतर की उन गाँठों को भी
जिनमें बाँध रखा होता है उसने हिसाब
अपनी माँ से अपने हिस्से आए प्रेम का।