भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उड़ गे चिड़ैयाँ / त्रिलोकीनाथ दिवाकर

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:55, 17 नवम्बर 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=त्रिलोकीनाथ दिवाकर |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चल उड़ गे चिड़ैयाँ
तोंय साथ लेके गो´याँ
नील गगन आरू भू पटल पर
चमकौ तोरो रोइयाँ चल उड़ गे चिड़ैयाँ।

चुनमुन-चुनमुन बोली तोरो
गीतो के धार बहाबै छै
गैया के गल्लॉ में रंटा
सुर में ताल मिलाबै छै
तोरो मधुर संगीत सुनै ल‘
उगलै गोसैयाँ, चल उड़ गे चिड़ैयाँ।

पली-बढ़ी के गामों में
उड़े के शिक्षा पैने छै
जो-बूट मटरो के सत्तू
खाय के देही बनैनैैं छै
जखनी-तखनी गामों के
गल्ली बाजै कर-को´याँ.. चल उड़ गे चिड़ैयाँ।

गामों के छोटी चिडैयाँ
शहरो में पंख फैलाबै छै
मातृभाषा अंगिका छोड़ी
दिस दैट बतियाबै छै
चकाचौंध शहरो के देखी
मटमट करै भो´याँ, चल उड़ गे चिड़ैयाँ।

शहरो के फैशन के देखी
ओकरो मोन लुभाबै छै
मान मर्यादा आरो प्रतिष्ठा
दोनों हाथंे लुटाबै छै
बाँधलो हवा पानी पाबी क‘
उड़ी गेलै चों´याँ, चल उड़ गे चिड़ैयाँ।