भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़ुल्फ़ उसकी मेरी ज़ुन्नार हुई जाती है / निर्मल 'नदीम'
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:43, 25 नवम्बर 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निर्मल 'नदीम' |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKC...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
ज़ुल्फ़ उसकी मेरी ज़ुन्नार हुई जाती है,
बेख़ुदी और मज़ेदार हुई जाती है।
पड़ गए चश्म ए सितमगर के शरारे हम पर
ताब ज़ख़्मों की पुरअसरार हुई जाती है।
शुक्र है हमको मुहब्बत ने बचाये रक्खा,
वरना ये दुनिया तो बीमार हुई जाती है।
वहशतों ही की कशाकश का करिश्मा है ये,
रूह मिट्टी की भी बेदार हुई जाती है।
आबलों ने जो उड़ाई है हंसी ज़ालिम की,
दश्त की ख़ाक भी गुलज़ार हुई जाती है।
आज फिर उसकी तमन्नाओं ने आंखें खोलीं,
आज वीरानी चमनज़ार हुई जाती है।
इस अदा से वो उतर आया मेरी घड़कन में,
ज़िन्दगी अपनी तरहदार हुई जाती है।
इश्क़ ने ऐसी बुलंदी की उढ़ाई चादर,
अब मुहब्बत मेरा किरदार हुई जाती है।
आह की बदली बरसती है सर ए शाम नदीम,
रात एहसास से सरशार हुई जाती है।