भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वक़्त के दोश पे जो बांध के महमिल बैठे / निर्मल 'नदीम'

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:00, 25 नवम्बर 2021 का अवतरण ('{{KKRachna |रचनाकार=निर्मल 'नदीम' |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <p...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वक़्त के दोश पे जो बांध के महमिल बैठे,
ऐसे आशिक़ के भला कौन मुक़ाबिल बैठे।

शमअ रोशन हो मेरे सामने क़ातिल बैठे,
मैं भी बैठूं तेरी महफ़िल में अगर दिल बैठे।

पांव तक धो नहीं पायेगा समंदर जिनके,
लोग ऐसे हैं कई बर सर ए साहिल बैठे।

एक तू है के लरज़ते हैं तेरे तीर ओ कमां,
एक हम हैं के निशाने पे लिए दिल बैठे।

हाल तेरा भी मुझे ऐसा नज़र आता है,
जैसे नुक्कड़ पे मिला करते हैं जाहिल बैठे।

जज़्बा ए ज़ोर ए वफ़ा अपना बढ़ाते रहना,
जब तेरे दाम में आकर मह ए कामिल बैठे।

गुंचा ओ गुल से हो आबाद मेरी ख़ाक ए चमन,
शाख़ पर आ के अगर दर्द का हासिल बैठे।

चल रहा हूं तो इसे मेरी ग़रज़ मत समझो,
बैठ जाऊं तो मेरे क़दमों में मंज़िल बैठे।

दोस्त हो, दुश्मन ए जानी हो या हो कोई नदीम,
शर्त ये है के बराबर मेरे क़ाबिल बैठे।