भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
संत्रासो में / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:44, 4 दिसम्बर 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश' |अनुवाद...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
कथा तुम्हारी यादों की ही हरपल बाँचा करता हूँ ।
सोते जगते, खाते पीते बिसर न जाये डरता हूँ ।
मन महीप तो देश देह की दिशा दशा सब है भूला,
मैं निरूपाय विवश राही सा नित्य भटकता मरता हूँ ।
कभी बुलाते, कभी भगाते कैसा क्षेल तुम्हारा है ?
कुछ दिन तो अवकाश बिताने दोगे आशा करता हूँ ।
तू न लिख सके छनद तो भला इसमें दोष हमारा क्या ?
मैं तो तेरे मन में बनकर उज्जवल बिम्ब उभरता हूँ ।
जीवन पंथ कंटकित है, तो निश्चित है पाटल खिलना,
मन में आशा लिए कदम दर कदम आग पर धरता हूँ ।
पीड़ाओं ! तुम आशा छोड़ो मुझे पराजित करने की
संत्रासों में जितना तपता उतना और निखरता हूँ ।
करूणे ! मैं तुझमें बसता हूँ क्योंकर अश्रु सृजन करती
पिघल पिघल तेरे श्यामल नैनों से मैं ही झरता हूँ ।