पटकथा / पृष्ठ 5 / धूमिल
साँचा:KKLambiRachana और सुनो! नफ़रत और रोशनी सिर्फ़ उनके हिस्से की चीज़ हैं जिसे जंगल के हाशिये पर जीने की तमीज़ है इसलिये उठो और अपने भीतर सोये हुए जंगल को आवाज़ दो उसे जगाओ और देखो- कि तुम अकेले नहीं हो और न किसी के मुहताज हो लाखों हैं जो तुम्हारे इन्तज़ार में खडे़ हैं वहाँ चलो। उनका साथ दो और इस तिलस्म का जादू उतारने में उनकी मदद करो और साबित करो कि वे सारी चीज़ें अन्धी हो गयीं हैं जिनमें तुम शरीक नहीं हो…’ मैं पूरी तत्परता से उसे सुन रहा था एक के बाद दूसरा दूसरे के बाद तीसरा तीसरे के बाद चौथा चौथे के बाद पाँचवाँ… यानी कि एक के बाद दूसरा विकल्प चुन रहा था मगर मैं हिचक रहा था क्योंकि मेरे पास कुल जमा थोड़ी सुविधायें थीं जो मेरी सीमाएँ थीं यद्यपि यह सही है कि मैं कोई ठण्डा आदमी नहीं है मुझमें भी आग है- मगर वह भभककर बाहर नहीं आती क्योंकि उसके चारों तरफ चक्कर काटता हुआ एक ‘पूँजीवादी’दिमाग है जो परिवर्तन तो चाहता है मगर आहिस्ता-आहिस्ता कुछ इस तरह कि चीज़ों की शालीनता बनी रहे। कुछ इस तरह कि काँख भी ढकी रहे और विरोध में उठे हुये हाथ की मुट्ठी भी तनी रहे…और यही है कि बात फैलने की हद तक आते-आते रुक जाती है क्योंकि हर बार चन्द सुविधाओं के लालच के सामने अभियोग की भाषा चुक जाती है। मैं खुद को कुरेद रहा था अपने बहाने उन तमाम लोगों की असफलताओं को सोच रहा था जो मेरे नजदीक थे। इस तरह साबुत और सीधे विचारों पर जमी हुई काई और उगी हुई घास को खरोंच रहा था,नोंच रहा था पूरे समाज की सीवन उधेड़ते हुये मैंने आदमी के भीतर की मैल देख ली थी। मेरा सिर भिन्ना रहा था मेरा हृदय भारी था मेरा शरीर इस बुरी तरह थका था कि मैं अपनी तरफ़ घूरते उस चेहरे से थोड़ी देर के लिये बचना चाह रहा था जो अपनी पैनी आँखों से मेरी बेबसी और मेरा उथलापन थाह रहा था प्रस्तावित भीड़ में शरीक होने के लिये अभी मैंने कोई निर्णय नहीं लिया था अचानक, उसने मेरा हाथ पकड़कर खींच लिया और मैं जेब में जूतों का टोकन और दिमाग में ताजे़ अखबार की कतरन लिये हुये धड़ाम से- चौथे आम चुनाव की सीढ़ियों से फिसलकर मत-पेटियों के गड़गच्च अँधेरे में गिर पड़ा नींद के भीतर यह दूसरी नींद है और मुझे कुछ नहीं सूझ रहा है सिर्फ एक शोर है जिसमें कानों के पर्दे फटे जा रहे हैं शासन सुरक्षा रोज़गार शिक्षा … राष्ट्रधर्म देशहित हिंसा अहिंसा… सैन्यशक्ति देशभक्ति आजा़दी वीसा… वाद बिरादरी भूख भीख भाषा… शान्ति क्रान्ति शीतयुद्ध एटमबम सीमा… एकता सीढ़ियाँ साहित्यिक पीढ़ियाँ निराशा… झाँय-झाँय,खाँय-खाँय,हाय-हाय,साँय-साँय… मैंने कानों में ठूँस ली हैं अँगुलियाँ और अँधेरे में गाड़ दी है आखों की रोशनी। सब-कुछ अब धीरे-धीरे खुलने लगा है मत-वर्षा के इस दादुर-शोर में मैंने देखा हर तरफ रंग-बिरंगे झण्डे फहरा रहे हैं गिरगिट की तरह रंग बदलते हुये गुट से गुट टकरा रहे हैं वे एक-दूसरे से दाँत-किलकिल कर रहे हैं एक दूसरे को दुर-दुर,बिल-बिल कर रहे हैं हर तरफ तरह-तरह के जन्तु हैं श्रीमान् किन्तु हैं मिस्टर परन्तु हैं कुछ रोगी हैं कुछ भोगी हैं कुछ हिंजड़े हैं कुछ रोगी हैं तिजोरियों के प्रशिक्षित दलाल हैं आँखों के अन्धे हैं घर के कंगाल हैं गूँगे हैं बहरे हैं उथले हैं,गहरे हैं। गिरते हुये लोग हैं अकड़ते हुये लोग हैं भागते हुये लोग हैं पकड़ते हुये लोग हैं गरज़ यह कि हर तरह के लोग हैं एक दूसरे से नफ़रत करते हुये वे इस बात पर सहमत हैं कि इस देश में असंख्य रोग हैं और उनका एकमात्र इलाज- चुनाव है।