भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रतिबिम्ब / दिनेश कुमार शुक्ल

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:31, 27 अप्रैल 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिनेश कुमार शुक्ल |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक दिन जब
समुद्र शान्त था
आकाश अति विनम्र
पृथ्वी ध्यानलीन
समय की सम्पुटी में
खिला कुछ सहसा ही
द्रुम-दल-विहीन जहाँ
स्वर के आरोह पर
गूँजता गहन मौन
घट में घुमड़ता जहाँ
नाद-रुद्र
खींचता उपेक्षा की बाँह
जहाँ ढीठ प्रेम

खिला
निकट इतना कि
जैसे आभ्यन्तर में
आत्मा का फूल खिला

निपट अलभ्य
निकट इतना आकाशकुसुम

जल-थल सब ओतप्रोत
पिघले विशाल दीर्घ दर्पण में
प्रतिबिम्बित
फूल खिला

खिला और बिखर गया अकस्मात्
मधुकोष कोमलदल छिन्न-भिन्न
फिर भी
जल-थल के दर्पण में
हँसता रहा प्रतिबिम्ब
अद्भुत सुगन्ध और रंग और आकृति में
खिलता रहा बार-बार

उठता गिरता रहा दर्पण का वक्ष
साँस भरता रहा।