भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आस्था - 8 / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:56, 27 अप्रैल 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरबिन्दर सिंह गिल |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
शायद शब्द
कुछ कहना चाहते हैं
परंतु
चारों तरफ फैले हुए
अहं के कोलाहल में
मानव बहरा हो गया है।
कैसी व्यथा है
मानव
अपने ही हित को
अनहित कर रहा है
शब्दों की आवाज को
अनसुना कर
अपने जीवन में
एक शून्य
पैदा कर रहा है।
इसी शून्य में
पैदा हो रहा है
एक चक्रवात
क्योंकि वहाँ
भावनाओं को बहने की
अनुमति नहीं है।
मानव को डर है
कहीं साहित्य
भावनाओं में बहने लगा
शब्द अपना अर्थ बदलने से कर देंगे
इन्कार
और नंगा होकर रह जायगा
मानव
अपने ही उजड़े शहर में।