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कितनी टूटन आयेगी / शेखर सिंह मंगलम

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मेरे यक़ीन के धागे में मौला
अब कितनी टूटन आएगी
रेत नहीं मैं कि
समंदर निगले फिर किनारे उगल जाए
फक़त एक ही ज़िन्दगी में मेरे
अब कितनी घुटन आएगी

खुदारा, हरेक लम्हे संग निभाई मैंने
शिद्दत से ईमानदारी है
फ़िलवक़्त क्यों मेरे ही सर पर
ग़मों की चट्टान तारी है
जा-ब-जा थक कर गिर गया हूँ
कितनी थकन आएगी
मेरे यक़ीन के धागे में मौला
अब कितनी टूटन आएगी

मेरी कोशिशों की कश्तियाँ साहिलों पर
क्यों नहीं जाती हैं
हैं क्या इनके मसाइल
ये मुझे क्यों नहीं बताती हैं
छूट तो गया हूँ बहारे ज़िन्दगी से
कितनी छूटन आएगी
मेरे यक़ीन के धागे में मौला
अब कितनी टूटन आएगी

वक़्त में मैंने लम्हों का
कब जीना दुश्वार किया था
मौक़ा-दर-मौक़ा
पतझड़ से चुन-चुन कर बाहर दिया था
मेरी ही दी हुई बहारों से
कब तक चुभन आएगी
मेरे यक़ीन के धागे में मौला
अब कितनी टूटन आएगी

मैं कभी नहीं करता होशियारी
वो करे रहते हैं तय्यारी
मतलब नहीं उनके दिमाग़ से मुझे
उनके दिल से है मेरी यारी मगर
ये जो मेरा मुब्तला है
उन्हीं की है कारगुज़ारी

कहाँ जाऊँ, किसको खिलाऊँ, किसका खाऊँ
खुशी और ग़म का ख़ज़ाना
किसकी ज़िन्दगी जूठन खाएगी?
मेरे यक़ीन के धागे में मौला
अब कितनी टूटन आएगी

ख़बर नहीं कि कौन-सा जुर्म किया मैंने
मुझे कोई तो बताए
ये ऊबन कब तलक जाएगी
उम्मीदों की साँसों पर
भरोसे की धड़कन कब तक आएगी
मेरे यक़ीन के धागे में मौला
अब कितनी टूटन आएगी...