Last modified on 30 अप्रैल 2022, at 13:57

गौरैया और गुफ़ा / शेखर सिंह मंगलम

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:57, 30 अप्रैल 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शेखर सिंह मंगलम |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

उम्मीद की तुरपाई को
हर बार ही हक़ीक़त ने उधेड़ दिया
जब भी उसने स्वप्न बुनना चाहा
सलाई की नोंक को
उसकी नींद की आँखों में कोंच दिया गया।

कभी वो किसी नदी किनारे
तो कभी किसी ऊँची इमारत पर खड़ी हो
कच्चे घड़े को डुबो-या फेंक देना चाहती थी,
अपने अंदर की अधमरी गौरैया को
उड़ा देना चाहती थी दुःख की गुफ़ा से बाहर लेकिन

उसे लौटना होता
जैसे उसका कोई अनुबंध था
पहाड़ी चुभन से/
उस गाँठ से जिससे उसने जने थे बच्चे

एक रत्ती दुरवस्था के
अदीन होने की उम्मीद न होना
और संग जीने को मज़बूर रहना
लात-घूंसे, थपेड़ और डंडे खाने के बाद भी-जैसे

बँधे रहना उस खूँटे में
जिसका सनकी ग्वाल थान की
चारो छिम्मियाँ ऐंठ कर
गोरस की जगह ख़ून निकाल पीता हो

और गाय टूवर आँखों से
अपने बच्चे का मुँह ताकती हो
पगहे को दाँत से काट कर
भाग जाने का विकल्प होने के बावजूद।