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गौरैया और गुफ़ा / शेखर सिंह मंगलम

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उम्मीद की तुरपाई को
हर बार ही हक़ीक़त ने उधेड़ दिया
जब भी उसने स्वप्न बुनना चाहा
सलाई की नोंक को
उसकी नींद की आँखों में कोंच दिया गया।

कभी वो किसी नदी किनारे
तो कभी किसी ऊँची इमारत पर खड़ी हो
कच्चे घड़े को डुबो-या फेंक देना चाहती थी,
अपने अंदर की अधमरी गौरैया को
उड़ा देना चाहती थी दुःख की गुफ़ा से बाहर लेकिन

उसे लौटना होता
जैसे उसका कोई अनुबंध था
पहाड़ी चुभन से/
उस गाँठ से जिससे उसने जने थे बच्चे

एक रत्ती दुरवस्था के
अदीन होने की उम्मीद न होना
और संग जीने को मज़बूर रहना
लात-घूंसे, थपेड़ और डंडे खाने के बाद भी-जैसे

बँधे रहना उस खूँटे में
जिसका सनकी ग्वाल थान की
चारो छिम्मियाँ ऐंठ कर
गोरस की जगह ख़ून निकाल पीता हो

और गाय टूवर आँखों से
अपने बच्चे का मुँह ताकती हो
पगहे को दाँत से काट कर
भाग जाने का विकल्प होने के बावजूद।